गणधर जैन दर्शन में प्रचलित एक उपाधि है। जो अनुत्तर, ज्ञान और दर्शन आदि [1]धर्म के गण को धारण करता है वह गणधर कहा जाता है। इसको तीर्थंकर के शिष्यों के अर्थ में ही विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। गणधर को द्वादश अंगों में पारंगत होना आवश्यक है। प्रत्येक तीर्थंकर के अनेक गणधर कहे गए हैं।
महावीर स्वामी के 11 गणधर थे। उनके नाम, गोत्र और निवासस्थान इस प्रकार हैं:
१इंद्रभुति गौतम (गोर्वरग्राम)
२.अग्निभूति गौतम (गोर्वरग्राम)
३.वायुभूति गौतम (गोर्वरग्राम)
४.व्यक्तस्वामी भारद्वाज कोल्लक (सन्निवेश)
५.सुधर्मास्वामी अग्निवेश्यायन कोल्लक (सन्निवेश)
६.मंडितपुत्र वाशिष्ठ मौर्य (सन्निवेश)
७.मौर्यपुत्र कासव मौर्य (सन्निवेश)
८.अकंपित गौतम (मिथिला)
९.अचलभ्राता हरिभाण (कोसल)
१०.मेतार्यस्वामी कौंडिन्य तुंगिक (सन्निवेश)
११.प्रभासस्वामी कौंडिन्य (राजगृह)।
भगवान महावीर के सभी शिष्य ब्राह्मण थे। सभी गणधरो को दीक्षा लेने से पूर्व अपने ज्ञान में कुछ न कुछ शंका थी। भगवान महावीर ने उनकी शंकाओ का समाधान किया था। सभी गणधर प्रभु के ज्ञान से सन्तुष्ट हो कर ही महावीर भगवान के शिष्य बने थे।